सोमवार, 11 अप्रैल 2016

दंतकथा पर आधारित शिरिष पाठ की महिमा निराली

पामगढ़ के समीपस्थ डोंगाकोहरौद में स्थित है मां का मंदिर 

मां शिरिष पाठ
शिरिष पेड़
राजेश सिंह क्षत्री/छत्तीसगढ़ एक्सप्रेस 

नवरात्रि के पर्व पर मां शिरिष पाठ की छठा देखते ही बनती है, जहां स्थानीय अंचलों सहित दूर-दराज से श्रद्धालुजन प्रतिदिन दर्शन करने पहुंचते है, जिसमें दंतकथा पर आधारित शिरिष पाठ में स्थापित मां की  प्रतिमा के साथ शिरिष पेड़ की पूजा किये जाने का विधान प्राचीनकाल से हैं। यह कथा जिला मुख्यालय जांजगीर के पामगढ़ विकासखण्ड की समीपस्थ ग्राम डोंगाकोहरौद की हैं, जिसमें प्रचलित कथा के अनुसार नाव और महिला की कथा प्रचलित हैं। इस प्रचलित कथा में गर्भवती महिला का नाव से पार करने की कहानी हैं, जिसके अनुसार यात्री नाव से भरी नाव महानदी में पार कर रहे थे तभी नाव बीच मजधार में रूक गई, जिसका कारण नाव में सवार गर्भवती महिला की सवार होने की कहानी प्रचलित हैं। मजधार में नाव रूकने पर नाविक ने यात्रियों से पूछा कि कोई गर्भवती महिला इसमें सवार हैं, तब एक यादव समाज की महिला ने स्वीकार किया कि वे गर्भवती हैं, तब नाविक ने उसे बदना-बदने के लिए कहा और बदना-बदने के पश्चात नाव नदी पार कर गई। यह महिला ग्राम डोंगाकोहरौद की रहने वाली थी और उसने बच्चा पैदा होने के पश्चात अपना बदना पूरा नहीं किया, तब शिरिष पेड़ से बना एक नाव पुरातन काल में टार-नाला के सहारे नदी से गांव की बंधवा तालाब तक जा पहुंचा और तालाब में स्नान कर रही बदना-बदने वाली महिला को अपने चपेट में लेते हुए डूबाकर मार दिये। घटना की जानकारी गांव में फैल गई, तब उसके पति ने कुल्हाड़  लेकर तालाब पहुंचा और घटनाकारित नाव को तालाब से पकड़ बाहर निकाला तथा कुल्हाड़ से उसके तुकड़े-तुकड़े कर दिये। इस घटना के कुछ दिन बाद गांव में प्राकृतिक आपदा फैल गई है और सभी प्रमुख मार्गो में जगह-जगह शिरिष का पेड़ उग आया, जिस पर गांव वालो ने दैविक आपदा मानकर एक यज्ञ कराया तथा जगह-जगह उगे शिरिष पेड़ को काटकर सिर्फ यज्ञ स्थल के पेड़ को बाकी रखा। इसके पश्चात उस पेड़ की पूजा गांव की प्रमुख देव के रूप में सैकड़ो वर्ष पूर्व की जाती रही हैं तथा उसमें काली फीता-चुड़ी बांधकर अपना-अपना मन्नत मांगने की विधान चलते रहा। प्रारंभ में उस स्थल पर करीब 20 फिट के चबुतरे पर 7 शिरिष पेड़ था, जहां ग्रामवासी सभी प्रमुख त्यौहारों में पूजा-अर्चना करते थे, किन्तु वर्ष 2000 के पश्चात गांव के प्रबुद्धजनों द्वारा उस स्थल की विकास के लिए ध्यान देना प्रारंभ किया किन्तु विकास के लिए चारो तरफ गांववासियों का दो फसली खेत का होना अड़चन के रूप में दिखाई दी। इस स्थिति में गांव वालों ने एक समिति बनाकर उस स्थल के विकास के लिए शिरिष पेड़ की चबुतरे से जुड़े भूमि को किसानों से दान के रूप में मांगा और पंचायत की सहयोग से एक छोटा मंदिर बनाया।

चबुतरे से सड़क तक का सफर तय 


उक्त स्थल पर ग्रामवासियों का विशेष आस्था होने के कारण खेतिहर भूमि होने का अड़चन धीरे-धीरे दूर होते गया और एक मंदिर के पश्चात छोटे-छोटे अन्य भवन बन गये, वहीं पहुंच मार्ग के लिए भी रास्ता निकालते हुए नहर से करीब दो किलोमीटर दूरी तक बीच में पडने वाले सभी किसानों से 10 फीट भूमि दान का मांग रखा गया तब किसानों ने सहर्ष स्वीकारते हुए अपनी-अपनी भूमि दान दे दी और प्रशासनिक सहयोग से आज वहां सीमेंट कांक्रीट का सडक़ मार्ग बन गया हैं, जहां मंदिर में विराजित माता के दरबार में सैकड़ो की संख्या में प्रति वर्ष दोनो नवरात्र के पर्व पर दीप-ज्योति प्रज्जवल्लित कराते हैं तथा हजारों की संख्या में दर्शनार्थी पहुंचने लगे हैं।

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